Monday, May 2, 2011

प्रकृति से बिखरा नाता

प्रकृति की हर रंगत ही मन को मोहने वाली है ,
आसमान हो, या धरती हो ,या फिर बारिश की बोछारें ,
सच जानो तो सारे तत्वों की ही छटा निराली है.
नीला अम्बर अपनी राजशाही तो दिखलाये ,
पर अक्सर ही ओढ़ सफेदी की चादर ये समझाए ,
मन में मैल ना आने देना,छोटी छोटी बातों से,
क्यूंकि,मन शुद्धि और जन शांति ही,सम्रद्धि को दर्शायें .
धरती की हरिता को देख सब  ,विस्मित से हो जाते हैं, 
इसलिए तो तनाव मिटाने,लोग अब भी वन को जाते हैं,
छाया देते, भोजन देते, सब कुछ ही दे देते हैं ,
मानव जीवन की सार्थकता को ही ये समझाते हैं.
साँसों के इस स्रोत को,हम फिर क्यूँ यों मिटाए जाते हैं ?
सावन में ,मेघा जब भी घन घन करते आते हैं,
सबके मन में प्रेम रंग ही ,वो भरते जाते हैं,
कृषकों के मन का उल्लास हो या फिर कवियों की कविता की प्रेरणा,
वर्षा-वसंत जैसी ऋतुयों से ही तो हिम्मत पाते हैं.
पर ना जाने क्यूँ फिर भी ये पेड़ काटे जाते हैं ?
वसुंधरा का अंग  अंग अब ,चीत्कार है कर रहा,
कहीं लावा ही उबल रहा तो कहीं बवंडर है उठ रहा ,
पानी सिर से ऊपर हो गया, कितना और सताओगे ,
संतान होने की तुम भी कभी क्या कोई रस्म निभाओगे ?
जीवन शैली ना बदली तो,ये रिश्ता ही मिट जायेगा ,
ममता के बिन सोच रे मानव,क्या कुछ तू पा पायेगा ?






2 comments:

Raji said...

Another beautifully written poem...all the nature's elements portrayed magnificently along with the wonderful message of saving trees and nature.

Anchal said...

Thanks a lot dear

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