Saturday, May 28, 2011

भक्ति गीत

ओ कान्हा,तुम आओ अब दुःख हरने,
हर मन में ,बस प्रेम उमंग ही भरने ,
बीते बहुत बरस हैं देखो,एक ही विश्वास में,
की आओगे तुम, रीत अमर ये करने.
    ओ कान्हा ,तुम आओ अब दुःख हरने.      
               रसभरी राधा ने तुम पर,जो प्रीत का रंग चढ़ाया है,
               रहे कहीं भी तुम प्रभु पर,साथ उसी का सुहाया है.
               मीरा की हरि भक्ति ने,सबको ये दिखला दिया,
               कि आते हो सदा तुम,हाँ प्रीत की रीत निभाने.
ओ कान्हा,तुम आओ अब दुःख हरने,
हर मन में,बस प्रेम उमंग ही भरने.......
                 केशव तुम सा बन्धु पाकर,फिर क्या पाना होता है,
                 जो तुम पास नहीं तो फिर ,पाना भी खोना होता है ,
                 पार्थ,द्रौपदी और सुदामा सब ने ये चरितार्थ किया,
                 की मित्र तो बस तुम हो, जो आते हर धर्म निभाने  .
ओ कान्हा,तुम आओ अब दुःख हरने,
हर मन में ,बस प्रेम उमंग ही भरने ...........
                  इस युग में तो प्रभु माया ने गहरा जाल बिछाया है,
                  हर रिश्ते नाते को बस सौदे से ही भरमाया है,
                  फिर अवतार को धर के माधव, मानवता की नींव रखो,
                  हाँ आना होगा तुमको ,फिर से एक अलख जगाने .
ओ कान्हा,तुम आओ अब दुःख हरने,
हर मन में ,बस प्रेम उमंग ही भरने.   
                                   
             
              
               
                 
               
                 
             
                  

Monday, May 23, 2011

भाव और अभिव्यक्ति

सोचो तो ग़र भाव ना होते ,तो हम कैसे रह पाते ,
वाचाल हो या फिर मूक ही सही,क्या कभी कुछ कह पाते?
नज़रें हों या फिर ज़ुबां,भावों से ही जतलाते,
भाव सभी की भाषा बनते,चाहे जो भी मंज़र आते.
                भावों की अभिव्यक्ति भी बहुत ज़रूरी होती है,
                कभी अधरों से ,कभी नज़रों से उनकी पूर्ती होती है;
                बोल तो सभी लेते होंगे शायद ,
               पर बोलने की अदा तो उसके अंदाज़ और छिपे भाव में ही होती है.
शिशुओं को देखो तो ,कैसे हैं ये समझाते ,
चेहरे पे आये भाव ही सब कुछ हमसे कह जाते ,
कभी जो वे करें शरारत, टेढ़ी सी मुस्कान वो देते,
तो कभी भोले पन की ओढ़ के चादर टहलाते.
                 अब वयस्कों की ओर तुम देखो ,बात अनोखी होती है ,
                 जीवन के हर रस को भावों में व्यक्त करने की आदत जो होती है ,
                 कभी क्रोध में होंठ कपकपाने लगते हैं ,और आँखें लाल हो जाती है ,
                 तो कभी स्नेह से भरे नयन ,यूँ ही छलछला उठते हैं;
इतना ही नहीं ,कवियों की कविता की जान होते हैं भाव,
भक्तों के गीतों में भक्ति बन कर उतरते हैं ये भाव,
प्रेमियों की नैया का सहारा होते हैं भाव ,
दिल टूटे या जुड़े ख़त पर उतारे जाते हैं भाव ,
                    रंभाती हुई गौ हो या दहढ़ता हुआ सिंह,भावों की अभिव्यक्ति ही करते हैं,
                    दर्द में कराहने पर अश्रुओं से नेत्र उनके भी भरते हैं ,
                    मनुष्यों को व्यक्त करने के साधन बहुत हैं ,
                    पर फिर भी ना जाने क्यूँ ,बहुत से लोग अभिव्यक्ति से डरते हैं.
प्राणिमात्र  के हर रिश्ते के पूरक बनते हैं भाव,
जहाँ कुछ खोने का डर हो वहाँ भी धीरज धराते हैं भाव,
संपूर्ण धरा पर  मानवता को प्रमाणित करते हैं भाव,
आश्चर्य है ,की एक पलछिन में कितना कुछ कह जाते हैं ये भाव.
                 
                 


                  


                  

Friday, May 13, 2011

ज़िन्दगी



ज़िन्दगी हर रोज़ नया सवेरा लगती है ,
कभी धूप तो कभी छाँव,ऐसा एक बसेरा लगती है.
कहीं तो पंखुड़ी से भी ज्यादा कोमल हो जाती है 
तो कभी पत्थर से भी अधिक सख्त लगती है .
                     इस राह का प्रत्येक पड़ाव कितना कुछ सिखा जाता है, 
                     आशाओं से भरा पूरा ब्रह्माण्ड हमारा ही है ,ये बता जाता है,
                    कठ्नाईयाँ आएँगी निरंतर आगे की ओर अग्रसर होने के प्रयास में ,
                     कभी मन निराशाओं से घिर भी जायेगा,और अँधेरा ही नज़र आएगा ,
                    पर फिर वो जीवन ही क्या,जहाँ सब सुलभता से उपलब्ध हो,
                    आखिर परिश्रम की महत्ता और उसका परिणाम भी तो ये हमे यहीं दर्शायेगा.
ज़िन्दगी निर्झरा की तरह बहती हुई रहने दो ,
हर छोटे बड़े अनुभव को, इसमें सम्मलित होने दो ;
नहीं पता कौन सी निशा शीतल लहर बन कर आये और ये बताये,
की अभिनव भोर का संदेसा है ये ,अब तो तुम मुस्करा दो,
अब तो मुस्करा दो .
           
                   


   

Thursday, May 5, 2011

माँ


दुनिया की किसी भी अक्षर माला को अगर हम देखें, तो वो शब्द जिसका अर्थ हर भाषा में एक ही है वो है -" माँ "
अद्भुत कृति परमात्मा की, जो माँ के रूप में पाई है,
सामने हो या ना हो ,पर सदा ही वो दिल में समाई है .
किसी मोड़ पर जब भी मैंने ,थोड़ी ठोकर खाई है,
एक वो ही तो थी जिसकी आँखें भर भर आई है.
बचपन की यादों ने, जब भी दिल पर दस्तक दी ,
या फिर मेरे अल्हड मन में ,कोई शरारत ही पली,
तितली तू मेरे आँगन की,ऐसा ही वो कहती थी,
तू रहे झूमती ,मदमस्त हवा सी ,
तब भी ,जब फूल बन जाएगी ये कली.
तेरे साये में ही जाना की,ममता कैसी होती है ,
कभी सख्त सख्त,कभी नरम नरम बस तेरे जैसी होती है .
तेरी ही द्रढ़ता ने मुझको दिशा सही है दिखलाई,
जिसके बल पर,नदी सी बहती ,मैं इतनी दूर निकल आई.
मन को देखो चंचल कितना, जब हठ पर आ जाता है,
"माँ" तेरे आँचल में आने, को ही ये तरसाता है,
कितना भी समझाऊँ इसे की, ज़िद्द अच्छी ना होती है,
बाल सुलभ सा उत्तर देता,"माँ" की गोद ही तो सबसे भली होती है.
एक बार बेटा कहकर जैसे ही तू सहलाती है, 
हर स्पर्श यही पूछे की ऐसा सुकून कहीं होता है ?
तिनका भी चुभ जाये मुझे तो,दर्द तुझे ही होता है ,
विस्मित करती यही बात ,की ममता का रिश्ता ही ऐसा होता है.
लाड़ ,दुलार को परिभाषित करने की अब तो वजह नहीं होती है ,
क्यूंकि उसकी सीरत तो सिर्फ "माँ" के जैसी होती है ;
बस "माँ"ऐसी ही होती है ;हाँ तेरे जैसी होती है . 

Tuesday, May 3, 2011

दिलजले

मुस्कराने को कहा तो,चेहरा फिराये बैठ गए ,
ऐ दोस्त इतना तो बता दे ,की ये तकरार क्या है ?
मैंने तो मन से निभाया ,तेरी हर एक रस्म को ,
तू इसे भी ख़ता समझे ,तो इतना बता दे प्यार क्या है ?
दिल से लगा के रखा है ,तेरे हर ख्याल को,
दीवानगी भी रास ना आई तुझे ,फिर भी ये  एहसास क्या है ?
पास रहने का जो वादा, किया था तूने कभी ,
अब आप ही ये पूछते हैं, की उम्र भर का साथ क्या है?
हर ज़र्रे ने देखा है ,मेरे जूनून को तेरे लिए ,
उस पर भी सब यही पूछे ,की मेरी औकात क्या है ?
बेरुखी भी है मुझे मंजूर ,पर फिर भी आँख भर आई है ,
बस तू इतना ही बता दे, की इसका सबब  क्या है ?
पीता तो पहले भी मैं था,पर वो प्याले और थे ,
मुफलिसी में पी तो जाना, की इसका अंजाम क्या है?
तन्हा ही चला हूँ ,अब ज़िन्दगी की राह में, 
दिलजला कहे की भोर है ये ,तो आप ही बता दें की फिर शाम क्या है?








Monday, May 2, 2011

प्रकृति से बिखरा नाता

प्रकृति की हर रंगत ही मन को मोहने वाली है ,
आसमान हो, या धरती हो ,या फिर बारिश की बोछारें ,
सच जानो तो सारे तत्वों की ही छटा निराली है.
नीला अम्बर अपनी राजशाही तो दिखलाये ,
पर अक्सर ही ओढ़ सफेदी की चादर ये समझाए ,
मन में मैल ना आने देना,छोटी छोटी बातों से,
क्यूंकि,मन शुद्धि और जन शांति ही,सम्रद्धि को दर्शायें .
धरती की हरिता को देख सब  ,विस्मित से हो जाते हैं, 
इसलिए तो तनाव मिटाने,लोग अब भी वन को जाते हैं,
छाया देते, भोजन देते, सब कुछ ही दे देते हैं ,
मानव जीवन की सार्थकता को ही ये समझाते हैं.
साँसों के इस स्रोत को,हम फिर क्यूँ यों मिटाए जाते हैं ?
सावन में ,मेघा जब भी घन घन करते आते हैं,
सबके मन में प्रेम रंग ही ,वो भरते जाते हैं,
कृषकों के मन का उल्लास हो या फिर कवियों की कविता की प्रेरणा,
वर्षा-वसंत जैसी ऋतुयों से ही तो हिम्मत पाते हैं.
पर ना जाने क्यूँ फिर भी ये पेड़ काटे जाते हैं ?
वसुंधरा का अंग  अंग अब ,चीत्कार है कर रहा,
कहीं लावा ही उबल रहा तो कहीं बवंडर है उठ रहा ,
पानी सिर से ऊपर हो गया, कितना और सताओगे ,
संतान होने की तुम भी कभी क्या कोई रस्म निभाओगे ?
जीवन शैली ना बदली तो,ये रिश्ता ही मिट जायेगा ,
ममता के बिन सोच रे मानव,क्या कुछ तू पा पायेगा ?