कभी मुस्करा कर, कभी चिढ़ा कर ,थोड़े कटाक्ष का मज़ा ले ही लें ,
हम भी आखिर "हमी" हैं , किसी से खुद को कम तो ना समझेंगे ,
मसखरी बस से कैसे छोड़ दें, 'जिव्हा पर व्यंग्य' का मज़ा अब ले ही लें.
देखने में अजब ही सी एक चीज़ आई है,
'जीभ' ही है जो प्रभु ने ,बड़ी फुर्सत से बनाई है ;
सौ सौ हुनर दिए हैं इस छोटी सी कलम और तलवार को,
और इसने है की जब देखो तलवार ही चलाई है .
अरे नामुराद थोडा लिहाज़ ही कर लिया होता ,
पकवानों को देखकर कैसे लप्ल्पायी थी तुम,
इतना ही ख्याल कर लिया होता,
सब कुछ कहने की ज़रुरत ही कब होती है ,
इतना सा दिल से सवाल तो कर लिया होता ?
वह भी तुनक कर बोली , फूल बरसाऊँ या कैंची चलाऊं मेरी मर्ज़ी है ,
"तारीफ़" के लिए तो दिल को साथ लेने की भी अजब बेदर्दी है;
इसलिए तो एकाकी ही काम को अंजाम देती हूँ मैं,
मिर्ची से भी तीखी होकर या कभी ख़ामोशी से ही कत्लेआम करती हूँ मैं.
होली ही तो मौका है जब लोग दिल का मलाल बयां करते हैं ,
कुछ गिले शिकवे दूर करते हैं, तो कुछ स्नेह प्रेम का रस भरते हैं ;
पर ऐसे में भी मैं( जीभ) अपना गुबार निकल ही लेती हूँ ,
बुरा ना मनो होली है कहकर हलके से होंठो को दबा ही लेती हूँ.
4 comments:
Excellent job, Anchal! It is so true the tongue has immense power.....to make or break someone's day. Loved the last two lines and pakwan wali lines....laplapati hain jheebh, tab treadmill yaad nahi aata. I am glad you are back with your pen.
Wow..another lovely poem anchoo..totally enjoyed reading it. And really glad to see u back in action.
Thanks a lot dear Hetal :)
@ Raji .......Thank you sweetie :)
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